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कविता

घाघरा नदी के कछार में बनी झोंपड़ियों को देखकर

प्रांजल धर


अधूरी कहानियाँ अपने अधूरे
कथानकों के साथ
औंधे मुँह उलट जाने को बिलकुल
मजबूर हैं
बहस-मुबाहिसों और आलोचना के
सौंदर्यशास्त्रीय पूर्वी और पश्चिमी
- दोनों -
प्रतिमान अभी कई मील दूर हैं।
बीच में धारा से कट चुकी भटक चुकी
नदियों के डबरे हैं, पठार हैं
और है एक महाकाय शोषित
परित्यक्त झील!
झील में आहत अभिमानों और
खंडित प्रतिमानों
से ग्रस्त साइबेरियाई पक्षियों के
कुछ जोड़े हैं जो अंतिम पंक्ति के ‘जन’ सरीखे दीखते हैं
उनके अतीत में राजनीति के
धूसर अध्यायों के लंबित थपेड़े हैं।
बारिश हुए सदियाँ बीत गईं,
पतझड़ सावन शरद शीत और लू
हवा के कितने झोंके आए, चले गए।
किसी ने साथ न दिया इनका
महात्माओं के आशीषों ने नहीं
वामपंथी विश्वासों ने भी नहीं।
ग्राम्शी, मार्क्यूजे और ल्यूकाच
कब के पीछे छूट गए
‘सामाजिक’ रिश्ते भी
इन्हें जमकर लूट गए,
विकास की इन्हीं कसौटियों पर
खरे उतरने की ताबड़तोड़ कोशिश में
सदियों से संचित इनके सपने टूट गए।
अब ये पक्षी जलकुंभियों को भी द्वीप समझ
डेरा डालते हैं उन पर
चार पल को ही सही, सहारा तो पाते हैं
मल्हार तो गाते हैं
कभी-कभी बिरहा और कभी-कभी
कजरी भी।
लोकधुनों में ‘अविकसित’ होने का तत्व
खोजते हैं।
साइबर कैफे से लौटे इंटरनेटीय
बच्चों को देखकर जाने क्या बुदबुदाते हैं
फुसफुसाते हैं
‘वही’ बातें हैं नेट पर, उसी दुनिया की
- अच्छी या बुरी -
रोचक या जरूरी, महत्वपूर्ण
या प्रासंगिक
पूरी या अधूरी
पर बातें उन्हीं की हैं शायद
इसीलिए इनकी कहानियाँ
सदियों से अधूरी हैं
अधूरी की अधूरी।
 

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